भारत के इतिहास में कई ऐसी घटनाएँ दर्ज हैं, जो इंसानियत को झकझोर कर रखती हैं। ऐसी ही एक भयानक त्रासदी थी दिहुली हत्याकांड (1981), जिसमें 24 निर्दोष दलितों को बर्बरतापूर्वक मार दिया गया था। इस नरसंहार के 43 साल बाद, अदालत ने तीन दोषियों – कप्तान सिंह, राम पाल और राम सेवक – को फांसी की सजा सुनाई है।
हालांकि, यह फैसला देर से आया, लेकिन पीड़ित परिवारों के लिए यह एक बड़ी राहत की खबर है। क्या यह न्याय काफी है? या फिर चार दशक लंबा इंतजार खुद में एक अन्याय था?
क्या है दिहुली हत्याकांड?
18 नवंबर 1981 की रात दिहुली गांव, मैनपुरी (अब फिरोजाबाद) में आतंक का पर्याय बन गई। संतोष सिंह उर्फ संतोषा और राधेश्याम उर्फ राधे के नेतृत्व में एक कुख्यात डकैत गिरोह ने इस गांव पर हमला किया।
- निर्दोषों की निर्मम हत्या: हमलावरों ने बच्चों, महिलाओं और पुरुषों को एक साथ खड़ा करके उन पर गोलियों की बौछार कर दी।
- लूटपाट और तबाही: हमले के बाद डकैतों ने गांव को लूटा और कई घरों को आग के हवाले कर दिया।
- एफआईआर और जांच: अगले दिन दिहुली निवासी लायक सिंह ने FIR दर्ज करवाई। पुलिस जांच के बाद 17 डकैतों के खिलाफ चार्जशीट दायर हुई।
चार दशक लंबा संघर्ष, फिर भी अधूरा न्याय?
दिहुली सामूहिक नरसंहार के मुकदमे के दौरान 17 में से 13 आरोपी मर चुके थे, एक अभी भी फरार है। बचे हुए तीन दोषियों को 43 साल बाद अदालत ने दोषी ठहराते हुए फांसी की सजा सुनाई है।
- बड़ा सवाल: क्या इतनी देर से मिला न्याय, वास्तव में न्याय है?
- 43 साल का इंतजार: पीड़ित परिवारों के लिए यह इंसाफ किसी घाव पर मरहम लगाने जैसा है, लेकिन घाव कभी भर नहीं पाएंगे।
- पीड़ित परिवारों का दर्द: इतने सालों में कई पीड़ित परिवार न्याय की आस में दुनिया छोड़ चुके हैं।
- क्या प्रशासन विफल था? यदि पुलिस और न्यायपालिका ने तेजी से काम किया होता, तो क्या आज यह फैसला पहले नहीं आ सकता था?
फैसले पर पीड़ित परिवारों और समाज की प्रतिक्रिया
दोषियों को फांसी की सजा मिलने के बाद पीड़ित परिवारों को थोड़ी राहत मिली है, लेकिन उनके मन में कई सवाल अभी भी हैं।
- “हमने अपने अपनों को खो दिया, अब न्याय मिलने का क्या फायदा?” – एक पीड़ित परिवार
- “यह फैसला 40 साल पहले आना चाहिए था। क्या सरकार हमें न्याय में देरी के लिए मुआवजा देगी?”
पीड़ित परिवारों से मिली थीं इंदिरा गांधी
- इस जघन्य हत्याकांड के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पीड़ित परिवारों से मिलने आई थीं।
- विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इस त्रासदी के खिलाफ आवाज उठाई और पीड़ितों के समर्थन में सदुपुर तक पदयात्रा की थी।
अब आगे क्या?
अब जब अदालत ने दोषियों को फांसी की सजा सुना दी है, तो सवाल यह भी है कि क्या इस फैसले को ऊपरी अदालतों में चुनौती दी जाएगी?
इस मामले ने भारत की न्याय व्यवस्था की धीमी प्रक्रिया पर भी गंभीर सवाल खड़े किए हैं।
- क्या ऐसे मामलों में फास्ट-ट्रैक कोर्ट जरूरी नहीं है?
- क्या सरकार पीड़ित परिवारों को उचित मुआवजा देगी?
- क्या यह फैसला दलित उत्पीड़न के खिलाफ एक मिसाल बनेगा?
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