भारत में निजी अस्पतालों की मनमानी और महंगे इलाज का मुद्दा कोई नया नहीं है। लेकिन अब इस पर सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रुख अपनाया है। सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को साफ कर दिया कि अगर इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल (Apollo Hospital) गरीबों का मुफ्त इलाज नहीं करेगा, तो इसे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) को सौंपने पर विचार किया जाएगा।
Apollo Hospital पर पट्टा समझौते के उल्लंघन का आरोप
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने कहा कि अस्पताल को 15 एकड़ की जमीन एक रुपये के प्रतीकात्मक पट्टे पर दी गई थी, ताकि यह बिना लाभ और हानि के आधार पर संचालित हो और एक तिहाई बिस्तर गरीब मरीजों के लिए आरक्षित हों। लेकिन अस्पताल एक वाणिज्यिक उद्यम में बदल गया, जहां गरीबों के लिए इलाज कराना लगभग असंभव हो गया है।
कोर्ट ने कहा, “अगर हमें पता चला कि गरीब लोगों को मुफ्त इलाज नहीं दिया जा रहा है तो हम अस्पताल को एम्स को सौंप देंगे।”
दिल्ली सरकार की भूमिका पर सवाल
आईएमसीएल (इंद्रप्रस्थ मेडिकल कॉरपोरेशन लिमिटेड) के वकील ने अदालत में दलील दी कि अस्पताल एक संयुक्त उद्यम है, जिसमें दिल्ली सरकार की 26 प्रतिशत हिस्सेदारी है और उसे भी मुनाफे का हिस्सा मिलता है। इस पर न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने तीखी प्रतिक्रिया दी और कहा-
“अगर दिल्ली सरकार गरीब मरीजों की देखभाल करने के बजाय अस्पताल से मुनाफा कमा रही है, तो यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात है।”
यह टिप्पणी मौजूदा स्वास्थ्य ढांचे पर गंभीर सवाल खड़े करती है। एक ओर सरकारी योजनाएं हर नागरिक को स्वास्थ्य सुविधाएं देने की बात करती हैं, वहीं दूसरी ओर निजी अस्पताल गरीबों के इलाज से मुंह मोड़ रहे हैं।
महंगा इलाज और आम जनता की दुश्वारी
देशभर में निजी अस्पतालों की मनमानी और महंगे इलाज के कारण लाखों गरीब लोग स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं। एक मध्यम वर्गीय परिवार के लिए भी अस्पताल का एक दिन का खर्च हजारों से लाखों रुपये तक पहुंच जाता है। सरकारी अस्पतालों में भीड़भाड़ और संसाधनों की कमी के चलते लोग मजबूर होकर निजी अस्पतालों का रुख करते हैं, लेकिन वहां इलाज करवाना उनकी पहुंच से बाहर हो जाता है।
अपोलो जैसे बड़े अस्पतालों को भारी छूट और सुविधाएं दी जाती हैं, ताकि वे समाज के सभी वर्गों को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करा सकें। लेकिन ये अस्पताल सिर्फ मुनाफा कमाने का जरिया बन गए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए कहा कि वह दिल्ली सरकार और केंद्र से पूछेगा कि क्या अस्पताल का पट्टा समझौता नवीनीकृत किया गया है या नहीं। अगर नहीं, तो इस पर क्या कानूनी कदम उठाए गए हैं।
क्या बदल सकता है?
अगर सुप्रीम कोर्ट इस मामले में कड़ा कदम उठाता है, तो यह निजी अस्पतालों के लिए एक बड़ी चेतावनी होगी। इससे यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि बड़े कॉर्पोरेट अस्पताल अपने सामाजिक दायित्व को न भूलें। यह केवल अपोलो अस्पताल तक सीमित नहीं है, बल्कि देशभर के अन्य निजी अस्पतालों पर भी असर डालेगा।
स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार के लिए सरकार और न्यायपालिका को मिलकर सख्त नीतियां लागू करनी होंगी। सरकारी और निजी अस्पतालों के लिए पारदर्शी नियम बनने चाहिए, ताकि हर नागरिक को इलाज का हक मिल सके।
सुप्रीम कोर्ट की इस सख्ती से देशभर में उन लोगों को राहत मिल सकती है, जो महंगे इलाज के बोझ तले दबे हुए हैं। यह फैसला निजी अस्पतालों को भी यह याद दिलाएगा कि उनका उद्देश्य सिर्फ मुनाफा कमाना नहीं, बल्कि समाज की सेवा करना भी है। अब देखना यह होगा कि कोर्ट के इस कड़े रुख के बाद सरकार और निजी अस्पताल क्या कदम उठाते हैं।