‘ब्राह्मण पे मैं मूतूंगा, कोई प्रॉब्लम’ फिल्म फुले के खिलाफ ब्राह्मणों की नाराजगी पर भड़के अनुराग कश्यप

लोकतंत्र में कलाकारों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, लेकिन जब यही स्वतंत्रता लगातार विषैला रूप लेने लगे — जब शब्द असभ्यता और जातीय घृणा में डूब जाएं — तब सवाल उठता है कि क्या यह सचमुच “स्वतंत्रता” है या सिर्फ एक एजेंडा?

फिल्मकार अनुराग कश्यप का हालिया बयान —

“ब्राह्मण पे मैं मूतूंगा, कोई प्रॉब्लम?”

सिर्फ एक असभ्य प्रतिक्रिया नहीं है; यह एक गहरी सामाजिक बीमारी का लक्षण है।

ब्राह्मणों पर अनुराग कश्यप ने क्या कहा?

हाल ही में फिल्म ‘फुले’ के खिलाफ ब्राह्मण समुदाय की आलोचनाओं पर प्रतिक्रिया देते हुए अनुराग कश्यप ने कहा:

“धड़क 2 की स्क्रीनिंग में सेंसर बोर्ड ने बोला, मोदी जी ने इंडिया में कास्ट सिस्टम खत्म कर दिया है। उसी आधार पर संतोष भी इंडिया में रिलीज नहीं हुई। अब ब्राह्मणों को फुले से समस्या है। भैया जब कास्ट सिस्टम ही नहीं है तो काहे का ब्राह्मण। कौन हो आप? आपकी क्यों सुलग रही है? जब कास्ट सिस्टम था नहीं तो ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई क्यों थे? या तो आपके ब्राह्मणवाद का अस्तित्व ही नहीं है, क्योंकि मोदी, जिनके हिसाब से भारत में कास्ट सिस्टम नहीं है। या सब लोग मिलकर सबको चू** बना रहे हो। भाई मिलकर डिसाइड कर लो, भारत में जातिवाद है या नहीं? लोग चू** नहीं हैं। आप ब्राह्मण लोग चू** हो या फिर आपके बाप हैं, जो ऊपर बैठे हैं। डिसाइड कर लो।”

यह बयान न सिर्फ भाषा की मर्यादा को तोड़ता है, बल्कि पूरे एक समुदाय के अस्तित्व और आत्म-सम्मान पर हमला करता है। विचारधारात्मक बहस के नाम पर इस तरह की सार्वजनिक बदजुबानी, क्या वाकई एक कलाकार की ज़िम्मेदार अभिव्यक्ति कहलाएगी?

जब राजपूतों को बनाया था निशाना

अनुराग कश्यप का जातीय एजेंडा कोई नया नहीं है। आज वो ब्राह्मणों पर ‘मूतने’ की बात कर रहे हैं, तो सालों पहले राजपूतों को भी “भविष्यहीन, निर्धन और पिछड़ा” कह चुके हैं।
‘पद्मावत’ पर करणी सेना के विरोध के समय अनुराग ने कहा था:

“राजपूतों का भविष्य नहीं है। वो आज भी अतीत में जीते हैं। उनके पास अपनी मूंछों में तेल लगाने तक के पैसे नहीं हैं, लेकिन मूंछों पर गर्व करते हैं। अपनी लड़कियों के लिए कुछ नहीं कर सकते, लेकिन शान-गौरव की बात करेंगे।”

अब ज़रा सोचिए—
अगर यही बात किसी और समुदाय को लेकर कही जाती, तो क्या अनुराग कश्यप फिल्में बना पाते?
क्या उन्हें प्रगतिशील माना जाता?
क्या उनके बयान को “सच बोलने की हिम्मत” कहा जाता?

लेकिन राजपूत हों या ब्राह्मण — अगर आप हिंदू समाज के किसी हिस्से से आते हैं, तो अनुराग कश्यप के लिए आप या तो पिछड़े हैं, या पाखंडी।

जातिवाद के विरुद्ध संघर्ष या एक नया जातिवाद?

‘फुले’ जैसी फिल्मों के ज़रिये अनुराग कश्यप अपने को सामाजिक अन्याय के खिलाफ लड़ने वाला एक नायक प्रस्तुत करना चाहते हैं। लेकिन यदि किसी सामाजिक सुधार की आड़ में वे स्वयं जातीय घृणा का प्रदर्शन करते हैं, तो यह सुधार नहीं, बदले की राजनीति बन जाती है।

ब्राह्मणों के खिलाफ ऐसी भाषा का प्रयोग न सिर्फ एक समुदाय का अपमान है, बल्कि उस समावेशी समाज का भी अपमान है, जिसकी वकालत वे अक्सर करते हैं। जातिवाद का विरोध करते हुए एक नया जातिवाद खड़ा करना सभ्य संवाद की आत्मा के साथ धोखा है।

अनुराग कश्यप खुद को ‘रिबेल’, ‘बोल्ड’, ‘अनफ़िल्टर्ड’ कहते हैं। लेकिन सच ये है कि उन्होंने हर मंच पर गाली, ताना, जातीय विष और अहंकार का ही प्रदर्शन किया है।

क्या अनुराग कश्यप की शैली सही है?

अनुराग कश्यप ने हमेशा अपने बयानों से सुर्खियाँ बटोरी हैं। उनकी फिल्में, जो समाज के काले पक्षों को उजागर करने का दावा करती हैं, वही खुद कश्यप के विचारों में भी अक्सर प्रकट होती हैं। लेकिन क्या यह आलोचना का तरीका सही है? क्या जब आप समाज के खिलाफ आवाज उठाने का दावा करते हैं, तो आपको भी खुद अपने विचारों और शब्दों के प्रति जिम्मेदार होना चाहिए?

बीते कुछ समय में की गईं उनकी लगातार बेहूदा टिप्पणियाँ इस बात का संकेत हैं कि वह एक अस्थिर मानसिकता के शिकार हो चुके हैं, जहां व्यक्तिगत अपमान को बहस और संवाद का रूप दिया जाता है।

जब किसी सार्वजनिक शख्सियत के बयान जातिवाद, धर्म या किसी समुदाय पर घृणा और नफरत की भावना पैदा करने वाले होते हैं, तो क्या हम केवल इसलिए उसे नजरअंदाज कर सकते हैं क्योंकि वह एक कलाकार है?

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग

अनुराग कश्यप का यह हालिया बयान यह सवाल खड़ा करता है कि क्या हम स्वतंत्रता की सही समझ को खो चुके हैं? सिनेमा, जैसा कि हम जानते हैं, एक शक्तिशाली कला है, जो समाज को जागरूक करने का काम करती है। लेकिन जब कोई कलाकार अपने नफरत भरे बयानों के जरिए समाज के विभिन्न समुदायों के बीच दूरी और विद्वेष पैदा करता है, तो इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में रखना उचित नहीं होगा।

कश्यप की फिल्में कभी समाज के अंधकारमय पहलुओं को उजागर करने का प्रयास करती हैं, तो कभी एक-दूसरे के खिलाफ नफरत फैलाने का। फिल्म उद्योग में उनका योगदान नकारा नहीं जा सकता, लेकिन उनके बयानों और निजी रायों को एक सीमा तक ही स्वीकार किया जा सकता है।

राष्ट्रीय संवाद की आवश्यकता

आज के समय में जब हमारे समाज में जातिवाद, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक असमानता की समस्याएँ विकराल रूप धारण कर चुकी हैं, ऐसे में हर कलाकार का दायित्व बनता है कि वह अपनी अभिव्यक्ति से समाज में एकजुटता और समझदारी का माहौल पैदा करे। लेकिन अगर हम समाज के विभिन्न समुदायों के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणियाँ करने वाले ऐसे बयानों को स्वीकार करते रहेंगे, तो यह किसी भी प्रकार की रचनात्मकता या स्वतंत्रता के नाम पर समाज में और बढ़ते असहमति के वातावरण को जन्म देगा।

यह ज़रूरी है कि हम कला, अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता के बीच अंतर को समझें। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं है कि किसी भी समुदाय, धर्म या व्यक्ति के खिलाफ अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया जाए।

विभाजनकारी सोच पर कसनी होगी लगाम

अनुराग कश्यप जैसे फिल्मकारों को यह समझना होगा कि समाज के विभिन्न पहलुओं पर बात करना, उन्हें चुनौती देना एक बड़ी जिम्मेदारी है। उनका काम केवल कला के रूप में नहीं, बल्कि समाज की शुद्धता और संवेदनशीलता को बनाए रखने का भी है। ऐसे समय में जब समाज में विभाजन और घृणा फैलाने वाली ताकतें सक्रिय हैं, हमें उन आवाज़ों को प्रोत्साहित करना चाहिए जो समाज में समझदारी, शांति और सहिष्णुता की भावना को बढ़ावा दें।

यदि कश्यप और अन्य फिल्मकार अपनी फिल्मों और बयानों में घृणा के बजाय समझ, सहानुभूति और तर्क का उपयोग करें, तो यह केवल कला के लिए नहीं, बल्कि समाज के लिए भी एक बड़ा योगदान होगा।

इसलिए, यह आवश्यक है कि हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सही तरीके से उपयोग करें और हर कलाकार, फिल्मकार और सार्वजनिक शख्सियत से यह उम्मीद करें कि वे अपने शब्दों का चयन सोच-समझ कर करें।

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