एयरपोर्ट पर ये कैसी लूट? पुलिस अफसर ने साझा किया जेब पर ‘डाका’ का कड़वा अनुभव!

एयरपोर्ट (Airport) पर महंगाई क्यों होती है एयरपोर्ट पर महंगाई क्यों होती है उत्तर प्रदेश पुलिस के एक अधिकारी, दिगंबर कुशवाहा, ने हाल ही में फेसबुक पर अपना एक किस्सा सुनाया है, जो हम सब की कहानी है। उन्होंने बताया कि कैसे एयरपोर्ट पर एक छोटी सी कॉफी ने उनकी जेब ढीली कर दी और दिमाग को घुमा दिया। ये सिर्फ उनकी कहानी नहीं, बल्कि हम जैसे लाखों लोगों का दर्द है जो सोचते हैं, “यार, एयरपोर्ट पर ये कैसी अंधी महंगाई है?”
ज़रा सोचिए, दिगंबर जी की फ्लाइट कनेक्टिंग थी, यानी तीन घंटे का इंतजार। ऐसे में कोई भी सोचेगा कि कुछ खा-पी लिया जाए। लेकिन, उन्होंने जो देखा, वो हैरान करने वाला था। बाहर ₹40 में मिलने वाली चीज़ें वहां ₹400 की थीं। उन्होंने सोचा, “चलो, खरीदने की औकात तो है, पर बेवजह पैसा फूंकना कौन सी समझदारी है?” ये बात सही है बॉस! चाहे जेब में कितना ही पैसा क्यों न हो, जब कीमत हद से ज़्यादा लगे, तो दिल नहीं मानता। दिगंबर जी भी बिना कुछ लिए अपनी सीट पर वापस आ गए।
लेकिन कहानी में ट्विस्ट तब आया जब उन्होंने देखा कि सामने एक लड़का मजे से कॉफी पी रहा है। उन्होंने सोचा, “अरे! ये तो अभी नौकरी भी नहीं करता, फिर भी खुशी-खुशी कॉफी पी रहा है। मैं क्यों न लूं?” बस फिर क्या था, हिम्मत करके एक कैपुचीनो कॉफी का ऑर्डर दे दिया। बिल आया तो भाई साहब, ₹470 का! दिगंबर जी का दिमाग ठनक गया। उन्होंने हिसाब लगाया, “₹10 का दूध, ₹10 की कॉफी, ₹10 का गिलास, ₹1 की चीनी और ₹1 की नैपकिन। कुल मिलाकर ₹32 का सामान और बिल ₹470?” ये तो सरासर लूट है!
इस घटना से कई सवाल उठते हैं:

Airport पर इतनी महंगाई क्यों होती है?

 

  • एयरपोर्ट पर चीजों के दाम इतने ज्यादा क्यों होते हैं? क्या वहां की जगह सोने से बनी है? असल में, एयरपोर्ट पर दुकानदार जानते हैं कि आप उनकी मजबूरी हैं। सुरक्षा जांच, बोर्डिंग पास और लिमिटेड समय, ये सब आपको बाहर निकलने नहीं देते। आपके पास जो मिलता है, उसी में से चुनने का विकल्प होता है। इसी मजबूरी का फायदा उठाकर वो मनमानी कीमतें वसूलते हैं। ये एक तरह का एकाधिकार है, जहां ग्राहक के पास मोलभाव करने का कोई मौका नहीं होता।
    एयरपोर्ट पर महंगाई की असल वजहें क्या हैं?
    जब हम एयरपोर्ट पर सामान की कीमतों को देखते हैं, तो अक्सर लगता है कि ये सिर्फ हमारी जेब काटने का तरीका है। हालांकि, इसकी कुछ ठोस वजहें भी हैं, जिनके चलते चीजें महंगी हो जाती हैं:
  • जगह का किराया (High Rent): एयरपोर्ट पर दुकान या आउटलेट खोलने के लिए बहुत मोटा किराया देना पड़ता है। ये किराया शहर के बाकी हिस्सों के मुकाबले कई गुना ज्यादा होता है। दुकानदार इस बड़े किराए की भरपाई करने के लिए अपने सामान की कीमतें बढ़ा देते हैं।
  • ऑपरेशनल कॉस्ट (Operational Costs): एयरपोर्ट पर दुकान चलाने का खर्च आम दुकान से कहीं ज्यादा होता है। स्टाफ की सैलरी ज्यादा होती है क्योंकि उन्हें सुरक्षा जांच से गुजरना पड़ता है और काम के घंटे भी अलग हो सकते हैं। सामान को एयरपोर्ट के अंदर लाने-ले जाने में भी कड़ी सुरक्षा जांच और लॉजिस्टिक्स का खर्च लगता है, जिससे लागत बढ़ जाती है।
  • सुरक्षा और नियम (Security & Regulations): एयरपोर्ट एक हाई-सिक्योरिटी ज़ोन होता है। यहां खाने-पीने की चीजों से लेकर हर सामान तक को कई सुरक्षा जांचों से गुजरना पड़ता है। इन सख्त नियमों का पालन करने में भी अच्छा-खासा खर्च आता है, जो आखिरकार ग्राहक से ही वसूला जाता है।
  • राजस्व साझाकरण (Revenue Sharing): कई एयरपोर्ट ऑपरेटर्स, दुकानदारों से किराये के अलावा उनकी कुल बिक्री का एक हिस्सा भी लेते हैं। यानी, दुकानदार जितना ज्यादा बेचेंगे, उतना ही एयरपोर्ट अथॉरिटी को भी देना होगा। इस वजह से भी दुकानदार अपनी कीमतें ऊंची रखते हैं ताकि अच्छा मुनाफा कमा सकें।
  • सीमित विकल्प और ‘कैप्टिव ऑडियंस’ (Limited Options & Captive Audience): जैसा कि दिगंबर जी के अनुभव से पता चलता है, एयरपोर्ट के अंदर यात्रियों के पास बाहर जाने या कहीं और से खरीदने का विकल्प नहीं होता। वे एक तरह से ‘बंधे हुए ग्राहक’ होते हैं। दुकानदार इसी बात का फायदा उठाते हैं क्योंकि उन्हें पता होता है कि ग्राहक को अगर भूख लगी है या कुछ चाहिए, तो वो यहीं से लेगा, चाहे दाम कितने भी हों।
  • डिमांड और सप्लाई (Demand and Supply): एयरपोर्ट पर खास समय में यात्रियों की भीड़ बढ़ जाती है। इस बढ़ी हुई डिमांड को पूरा करने के लिए भी कई बार सप्लायर और दुकानदार कीमतें बढ़ा देते हैं। साथ ही, एयरपोर्ट पर सामान स्टोर करने की जगह भी सीमित होती है, जिससे लॉजिस्टिक्स और महंगे हो जाते हैं।
  • प्रीमियम अनुभव का ‘टैक्स’ (Premium Experience Tax): कुछ हद तक, एयरपोर्ट पर चीजों को महंगा इसलिए भी रखा जाता है क्योंकि इसे एक ‘प्रीमियम’ अनुभव माना जाता है। यानी, जो लोग हवाई यात्रा कर रहे हैं, उनसे इस सुविधा और ‘खास’ माहौल के लिए अतिरिक्त पैसे लिए जाते हैं।
  1. ‘सर्विस चार्ज’ के नाम पर मोटी कमाई?
    क्या एक कॉफी पर ₹470 का सर्विस चार्ज वाकई जायज़ है? ₹32 की चीज़ को ₹470 में बेचना, ये मुनाफाखोरी की हद है। इतने पैसे में तो हम पूरे महीने घर पर दूध मंगाकर कॉफी पी सकते हैं! हमें बताया जाता है कि एयरपोर्ट पर किराया ज्यादा होता है, सुरक्षा का खर्चा होता है, इसलिए कीमतें ज्यादा होती हैं। ठीक है, कुछ तो मान सकते हैं, पर इतना ज्यादा क्यों?
  2. ग्राहकों की जेब कटी, पर स्वाद नहीं मिला!
    दिगंबर जी ने सही कहा, इतनी महंगी कॉफी पी, पर स्वाद नहीं आया। दिमाग तो बस हिसाब-किताब में ही लगा रहा कि कितने का इनपुट, कितना आउटपुट। जब जेब बेवजह कटती है, तो किसी चीज़ का मज़ा नहीं आता। हममें से ज्यादातर लोग जो मेहनत की कमाई करते हैं, वो कहीं भी पैसा खर्च करने से पहले सौ बार सोचते हैं कि क्या ये चीज़ इसकी कीमत के लायक है या नहीं। एयरपोर्ट पर तो ऐसा लगता है जैसे हमें सोचने का मौका ही नहीं दिया जाता, बस कीमत चिपका दी जाती है।
  3. सरकार और अथॉरिटीज की ज़िम्मेदारी क्या है?
    सवाल सिर्फ दुकानदारों पर नहीं, बल्कि एयरपोर्ट अथॉरिटी और सरकार पर भी है। क्या उन्हें इन बेलगाम कीमतों पर कोई कंट्रोल नहीं रखना चाहिए? लाखों लोग रोज़ हवाई यात्रा करते हैं और उन्हें मजबूरन इन महंगी चीज़ों को खरीदना पड़ता है। क्या ये यात्रियों को दी जाने वाली सुविधाओं के नाम पर खुली लूट नहीं है? एयरपोर्ट पर एक फेयर प्राइसिंग पॉलिसी क्यों नहीं लागू की जाती?
    यह समय है कि हम सब इस मुद्दे पर आवाज़ उठाएं। दिगंबर कुशवाहा जी का अनुभव सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि एयरपोर्ट पर चल रही लूट का जीता-जागता सबूत है। उम्मीद है कि संबंधित अधिकारी इस पर ध्यान देंगे और हवाई यात्रा को आम लोगों के लिए थोड़ा और ‘स्वादिष्ट’ बनाएंगे, न कि सिर्फ जेब काटने वाला अनुभव।
    आप इस बारे में क्या सोचते हैं? क्या आपको भी एयरपोर्ट पर ऐसा ही कोई कड़वा अनुभव हुआ है?

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