बिहार में पकड़ौआ विवाह के किस्से तो आपने खूब सुने होंगे, जहां कोई सरकारी नौकरी वाला लड़का मिला नहीं कि रास्ते से ही लड़की के घरवाले उठा लेते हैं, और फिर पंडित जी मंत्र पढ़कर जबरदस्ती ब्याह करा देते हैं। लेकिन 2025 में बिहार ने जो नज़ारा देखा, उसने इस परंपरा को भी फीका कर दिया है।
अब बिहार में पकड़ौआ ब्याह ही नहीं होते, पकड़ौआ मंत्री भी बनने लगे हैं।
बिहार में एनडीए को जबरदस्त जनादेश मिला। जनता ने हर दल को उम्मीद से ज्यादा सीटें दीं। पसंदीदा चेहरों को चुनकर विधानसभा पहुंचाया, कि चलिए सत्ता में पहुंचिए और हमारे लिए काम करिए। लेकिन जनता का यह भरोसा कैबिनेट लिस्ट बनते-बनते अचानक कहीं गुम हो गया।
लोकतंत्र पीछे बैठ गया, और वंशवाद + सत्ता का जुगाड़ + पकड़ौआ मॉडल मंच पर आ गया।
कहानी दिलचस्प इसलिए भी है क्योंकि ये पकड़ौआ मंत्री ठीक वैसे ही चुने गए हैं जैसे पकड़ौआ दूल्हा। बात समझ में आए या न आए, तैयारी हो या न हो, वोट मिले या न मिले…बस पकड़कर ले आए, और बना दिया मंत्री!
पकड़ौआ मंत्री 1: दीपक प्रकाश
पकड़ौआ मंत्रियों की लिस्ट में सबसे पहले नंबर पर आते हैं राष्ट्रीय लोक मोर्चा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा के बेटे दीपक प्रकाश। उनकी पार्टी से 4 विधायक जनता ने चुनकर भेजे।
लेकिन मंत्री बने- उपेंद्र कुशवाहा के बेटे दीपक प्रकाश। वो भी बिना चुनाव लड़े। सीधे शपथ ग्रहण तक पहुंच गए। बिहार के लोग चौंक गए, “अरे ये कैसे मंत्री बन गए?”
जनता चौंके तो चौंके, लेकिन यहां तो दीपक प्रकाश मंत्री शपथ की सूचना मिलने पर खुद ही चौंक गए थे। एबीपी न्यूज़ की पत्रकार चित्रा त्रिपाठी ने दीपक प्रकाश से पूछा-
ये अचानक से चमत्कार कैसे होगा? दीपक जी के जीवन में ये प्रकाश कहां से आया?
इस पर उपेंद्र कुशवाहा के बेटे दीपक प्रकाश ने कहा-
मीडिया में जब खबर आई, उससे कुछ ही देर पहले मुझे इस बात की जानकारी हुई थी। मेरे लिए भी यह चौंकाने वाला था।
उनके चेहरे पर भी कुछ वैसे ही एक्सप्रेशन देखे गए- जैसे किसी को अचानक पकड़कर बारात में खड़ा कर दें और कहें—“अब आप दूल्हा हैं।”
पकड़ौआ मंत्री 2: संतोष सुमन
पकड़ौआ मंत्रियों की लिस्ट में दूसरा नाम है जीतन राम मांझी के बेटे संतोष सुमन का। मांझी की पार्टी से 5 विधायक जनता ने चुनकर विधानसभा भेजे।
लेकिन जैसे ही मंत्रिमंडल की बारी आई, सारे विधायक साइड में। मंच पर बुलाया जाता है—संतोष सुमन को। वो भी बिना चुनाव लड़े!
मांझी जी को शायद मंत्री पद के लिए अपने बेटे से ज्यादा योग्यता उम्मीदवार नहीं मिला। थक हार कर मांझी ने कहा— “चलो, मेरे बेटे को ही बना दो।”
यह वही बिहार है जहां नेता चुनाव न जीतकर भी सत्ता तक ऐसे पहुंच रहे हैं जैसे घर से दुकान जाएं- आराम से, बिना भीड़, बिना लाइन, बिना प्रक्रिया, बिना बाधा।
वोट नहीं, बस वंश होना चाहिए?
चाय की दुकानों से लेकर पटना के राजनीतिक गलियारों तक एक ही चर्चा है—
क्या बिहार में मंत्री बनने की योग्यता अब वंशवाद में मापी जाएगी? क्याअब नेता का बेटा होना सबसे बड़ा क्वालिफिकेशन है।
अगर ऐसे ही चलता रहा, तो अगली बार विधायक भी कहेंगे— हम तो बस संख्याबल के काम आते हैं, असली गेम तो साहब के बेटे का है!
बिहार की जनता ने जो उम्मीदें लगाकर वोट दिया था, अब वो सवालों में बदल रही हैं—
- क्या जनता के जनादेश की कोई कीमत नहीं?
- क्या कैबिनेट में जगह पाने का एकमात्र रास्ता सिर्फ ‘सही परिवार’ होना है?
- और सबसे बड़ा सवाल—क्या बिहार में लोकतंत्र धीरे-धीरे परिवारवाद की प्रॉपर्टी बनता जा रहा है?